Saturday, 9 April 2011


__इन्तहा__
तेरी महफ़िल में ये पागल ये दीवाना आया है
तेर दीदार की हसरत में ये परवाना आया है
अब रखे दिल में इसको या जमाना मार दे ठोकर
ज़माने से बगावत कर के तुझपे मिटने आया है
ये तेरी ही निगाहों की नशीली प्यास है शाकी
खड़ा हूँ मय में दिल में प्यास है फिर भी मगर बाकी
प्याला तो मै पा लूँगा मगर तेरे इश्क़ की हाला
जो नज़रों से पिला दे तो लगेगी मौत भी फीकी
ये परवानों की हस्ती है की मिट के मिट नहीं पायी
शमा उनको जलाके खुद भी जिन्दा रह नहीं पायी
ये परवाना हमेशा तुझ पे ही मिट जाता है शमा
मगर इसको जलाके तू भि आंशू रोक न पायी
समंदर है नहीं वाकिफ़ मेरी इस प्यास से 'बादल'
नहीं तो मिन्नतें करता वो तेरा थाम के आँचल
दो कतरा इश्क़ का तेरी है मेरी प्यास से ज्यादा
जो चाहे तो पिला/जिला दे या रख दे प्यास से पागल............
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